भोपाल (महामीडिया) राजकुमार शर्मा भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र चौराहे पर हैं जहाँ सरकार सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को निजी क्षेत्र के लिए संचालन के लिए देने में संकोच बरत रही है। वहीं निजी क्षेत्र शहरी इलाकों में अनुमति के बावजूद गुणवत्तापूर्ण सेवायें कम मूल्य में उपलब्ध करवा पाने में सफल नहीं हो पा रहा है। विकास की जाएज मांग यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों सहित जिला अस्पतालों को प्राईवेट पार्टनरशिप पर संचालित करके सरकार को स्वास्थ्य का बजट निरंतर कम करने का प्रयास करना चाहिए लेकिन अभी इस दिशा में प्रारंभिक प्रयाय ही शुरू नहीं हुए। स्वास्थ्य सेवा में निजी क्षेत्र को जोड़ने की दिशा में ज्यादा बड़े प्रयास किए जाने की जरूरत है, वहीं यह प्रबंधन और सहायक प्रयासों पर आधारित होना चाहिए, जो सूचना की विविध प्रकार की असमानताओं और हितों के टकराव को समाप्त करता हो तथा लोगों को सही फैसला करने का अधिकार देता हो। विनियमक तंत्र बनाए बगैर और उच्च स्तरीय सार्वजनिक निवेश के लिए राजनीतिक रूप से तैयार हुए बगैर, खरीद पर आधारित सेवाओं की दिशा में अपरिपक्व और बिना तैयारी के परिवर्तित होना जोखिम से भरपूर हो सकता है। भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र चौराहे पर है। इसका आंशिक कारण विकास और स्वास्थ्य के बीच दिलचस्प रिश्ता है, जिसे प्रीस्टन कर्व के रूप में जाना जाता है। वर्ष 197 में सैमुअल प्रीस्टन ने दर्शाया कि यदि जीवन प्रत्याशा के अनुसार आंके गए देशों के स्वास्थ्य को प्रति व्यक्ति जीडीपी में मामूली वृद्धि होने पर भी जीवन प्रत्याशा में तेजी से वृद्धि होगी। उसके बाद यह कर्व एकाएक समतल हो जाता है और इस बिंदु के बाद जीवन प्रत्याशा में साधारण वृद्धि के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी किए जाने की जरूरत होती है। नोबेल पुरस्कार विजेता एंगस डीटन ने अपनी पुस्तक द ग्रेट एस्वेफप में इस बात की व्याख्या की है कि प्रीस्टन कर्व में झुकाव के बाद भी स्वास्थ्य निष्कर्षों और वृद्धि में निरंतर पारस्परिक संबंध बना रहता है अब वह सिर्फ लघुगणकीय संबंध है उसी डिग्री की वृद्धि के लिए, प्रति व्यक्ति जीडीपी में चार गुणा वृद्धि की आवश्यकता होती है वह यह भी इंगित करते हैं कि यह दो तरफा संबंध है-सिर्फ आर्थिक वृद्धि ही बेहतर स्वास्थ्य से संबंधित नहीं है कर्व में यह झुकाव महामारी विज्ञान में बदलाव को भी प्रदर्शित करता है- जब से असंक्रामक रोगों से होने वाली मौतें, मृत्यु का मुख्य कारण बनने लगी हैं, वे मातृ और सामान्य बाल्यावस्था रोगों से होने वाली मौतों की घटती संख्या वेफ कारण उनके अंश को तेजी से लगातार कम करती जा रही हैं। आज भारत इस कर्व के झुकाव पर या उसके नजदीक है और नीति के लिए इसके बड़े निहितार्थ है। कर्व के झुकाव पर, प्रजनन और बाल स्वास्थ्य तथा संक्रामक रोगों से संबंधित पिछली समस्याएं तो बरकरार हैं ही, साथ ही नई समस्याएं भी उनके साथ जुड़ गई हैं। यदि स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक निवेश नहीं बढ़ाया गया, तो निजी निवेश बढ़ाना होगा लेकिन इससे बेहतर स्वास्थ्य निष्कर्षों की प्राप्ति होना तय नहीं है। यदि सार्वजनिक निवेश बढ़ता है, तो इस बात का चयन करना होगा कि उसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को सुदृढ़ बनाने पर खर्च किया जाए या निजी क्षेत्र से सेवाएं खरीदने पर खर्च किया जाए। यदि बाद वाला विकल्प चुनें, तो कड़ी नियामक व्यवस्था लागू करने के लिए तत्पर रहने और सार्वजनिक व्यय जीडीपी के 2 प्रतिशत से कहीं ज्यादा बढ़ाने की जरूरत होगी, जिसका वर्तमान राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का प्रारूप आह्वान करता है। प्रारम्भिक दशकों में, मौतों का बड़ा अनुपात बहुत छोटे बच्चों की मौतों से संबंधित था। इनमें से ज्यादातर मौते 5 साल से छोटे बच्चों से संबंधित थीं। गर्भावस्था से संबंधित मौतों की संख्या भी ज्यादा थी। इन दोनों तरह की मौतों में तेजी से कमी आई है। वुछ हद तक तो इसका कारण प्रति जीवित जन्म पर होने वाली मौतों की संख्या में काफी कमी आना है और कुछ हद इसका कारण प्रजनन दर पर नियंत्रण है जिससे बच्चों अथवा गर्भवती महिलाओं की तादाद में भी तेजी कमी आई है। भारत इसमें कमी लाने में क्यों सफल हुआ, इसके कई कारण हैं। एक महत्वपूर्ण कारण पिछले 25 वर्षों में शिशु और मृत्यु दर में कमी लाने पर निरंतर ध्यान केंद्रित करना है। सबसे पहले हमने नब्बे के दशक की शुरूआत में बाल उत्तरजीविता और सुरक्षित मातृत्व कार्यक्रम चलाए और उसके बाद नब्बे के दशक के आखिर तथा पिछले दशक के आरंभ में प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाए। उसके बाद वर्ष 2005 में, संशोधित और बहुत ज्यादा सफल आरसीएच-2 कार्यक्रम चलाया गया और इस बार इस कार्यक्रम को राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जोड़ा गया। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की घोषणा और इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारत की दौड़ ने भी इसे हासिल करने में कम योगदान नहीं दिया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति क मसौदे में कहा गया हैः मातृ मृत्यु दर अनुपात के लिए एमडीजी प्रति 100,000 जीवित शिशुओं के जन्म पर 140 निर्धारित किया गया है। वर्ष 1990 की 560 की आधार रेखा से, राष्ट्र ने वर्ष 2010-12 तक आते-आते 178 की दर प्राप्त कर ली और वर्ष 2015 तक गिरावट की इस दर वेफ 141 एमएमआर तक पहुंचने का अनुमान है। 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर के संदर्भ में, एमडीजी लक्ष्य 42 है। वर्ष 1990 की 126 की आधार रेखा से, वर्ष 2012 में राष्ट्र की यूएमआर 52 थी और वर्ष 2015 तक गिरावट की इस दर के 42 तक पहुंचने का अनुमान है। वर्ष 2015 तक, भारत के आंकड़े वैश्विक औसत से कुछ बेहतर रहे। भारत ने आखिरकार गति पकड़ ली है और अब वह आगे बढ़ रहा है। इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि ये उपलब्धियां स्वास्थ्य के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्धारकों-स्वच्छता अथवा बच्चों के पोषण में तुलनात्मक सुधार लाए बिना हासिल की गईं जिनमें भारत की उपलब्धियों का स्तर वैश्विक औसत से कहीं पीछे हैं। ज्यादातर देशों में शिशु मृत्यु दर को गरीबी और असमानता के स्तरों के साथ निकटता से जोड़कर देखा जाता है। इन वर्षों में भारत में गरीबी में कमी विवादित रही है, दोनों पक्षों के प्रति विचार व्यक्त किए गए हैं। हालांकि यह स्पष्ट है कि विपरीत सामाजिक निर्धारकों के निरंतर बरकरार रहने के बावजूद बाल एवं मातृ उत्तरजीविता में कमी से संबंधित लक्ष्य स्वास्थ्य क्षेत्र को प्राप्त करना था। दोनों सामाजिक निर्धारकों वेफ बारे में सकारात्मक दिशा में, भारत ने वैश्विक मानकों के बराबर पहुंचने के लिए कुछ गंभीर कदम उठाए। पहला कदम सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति था, जिसके दायरे में 94 प्रतिशत से ज्यादा कस्बे अब लाए जा चुके हैं। और दूसरा कदम महिला साक्षरता है, जिसके बारे में ताजा जनगणना से पता चलता है कि 65.04 प्रतिशत महिलाएं अब साक्षर हैं। बेहतर महिला साक्षरता दर प्राप्त करने का मौजूदा जनसांख्यिकीय बदलाव के साथ निकट संबंध है। दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर अब घट रही है और ज्यादातर राज्य अब जनसंख्या स्थिरीकरण के अनुरूप अशोधित जन्म दर प्राप्त कर चुके हैं। जनसंख्या गति के कारण कुछ और वर्षों तक वृद्धि दर निरंतर अधिक बनी रहेंगी। यह इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि अतीत की उच्च प्रजनन दरों की बदौलत बहुत सी अन्य महिलाएं भी अब प्रजनन की अवस्था में प्रवेश कर रही होंगी और उससे गुजर रही होंगी। इसलिए, छोटे परिवार के मानक प्राप्त कर लिए जाने के बावजूद और ज्यादा बच्चों के जन्म लेने का सिलसिला जारी रहेगा। सिर्फ सात राज्यों - उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान तथा कुछ हद तक झारखंड, छत्तीसगढ़ और मेघालय में अब तक प्रजनन दर गंभीर रूप से अधिक बनी हुई है लेकिन इनमें भी दरों में गिरावट का सिलसिला उत्साहजनक है। यह नहीं कहा जा सकता कि प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य की चुनौतियां अब समाप्त हो चुकी हैं। अभी तक हर साल करीब 46,500 माताओं और 15 लाख 5 साल से छोटे बच्चों की मौते होती हैं, जो मातृ एवं बाल मृत्यु दर के वैश्विक अनुपात की दृष्टि से अधिक है। स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता और सुरक्षा भी एक मामला है। हालांकि स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों में जन्म लेने वाले बच्चों के अनुपात में काफी सुधार हुआ है लेकिन स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता अभी तक चुनौती बनी हुई है। ज्यादातर जनसंख्या समूहों और राज्यों में गर्भनिरोधक सेवाओं की मांग भली भांति स्थापित हो चुकी है, वहीं सुरक्षित बंध्याकरण सेवाएं मुहैया कराना अब तक चुनौती बना हुआ है, जैसे कि बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में बंध्याकरण से संबंधित मौतों का दुखद मामला सामने आया। गर्भपात सेवाएं भी विकास के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई हैं। पंचवर्षीय योजना में स्वास्थ्य सेवा खर्च पर दो गुणा और सांकेतिक संदर्भ में तीन गुणा वृद्धि हुई लेकिन यह अपने स्वयं के वित्तीय लक्ष्यों से 40 प्रतिशत पीछे रही। निस्संदेह बेहतर वित्तीय परिव्यय और व्यापक एवं लगातार मानव संसाधन लगाकर तथा तीन महत्वपूर्ण सामाजिक निर्धारकों -गरीबी, पोषण एवं स्वच्छता के क्षेत्र में व्यापक कार्रवाई करने से यह इससे कहीं बेहतर प्रदर्शन हो सकता है।